मुगल दरबार की मुख्य भाषा क्या थी? | mughal darbar ki mukhya bhasha kya thi

मुगल दरबार की मुख्य भाषा

मुगल दरबार की मुख्य भाषा फारसी थी।

मुगल दरबार में फारसी भाषा का विकास एवं महत्व

मुगल साहित्यिक संस्कृति फारसी भाषा के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट उपलब्धियों के लिए जानी जाती है। मुगल दरबारी संरक्षण ने फारसी के विकास हेतु महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यद्यपि यह दरबारी संरक्षण आरंभ से अंत तक एक समान नहीं रहा, फिर भी फारसी भाषा की महत्ता मुगल दरबारी राजनीति एवं साहित्यिक संस्कृति में बढ़ती गई। जैसा कि हम जानते हैं कि मुगल चगताई तुर्क परंपरा से थे और इनके अतिरिक्त ईरान से बाहर ती शासक ऑटोमन तुर्की में, उजबेक मध्य एशिया में शासन कर रहे थे परंतु ईरान से बाहर यह सभी तुर्की शासक फारसी भाषा के विकास को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे। वास्तव में यह देखने में भी आता है कि आरंभिक मुगल शासकों के दरबारों में फारसी भाषा का प्रभुत्व नहीं था जैसा बाद के कालों में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए बाबर ने अपनी रचनाबाबरनामा तुर्की भाषा में लिखी और बाबर उस समय तुर्की भाषा का एक जाना माना ज्ञाता भी था।
उसके उत्तराधिकारी पुत्र हुमायूं (1556) के काल में भी तुर्की भाषा ही प्रमुख भाषा बनी रही। उसके ईरान से वापस हिंदुस्तान आने के बाद भी उसके दरबार में तुर्की भाषा के कवियों एवं विद्वानों का प्रभुत्व बना रहा।अकबर के शासन के आरंभिक वर्षों में एक प्रमुख अमीर बैरम खां ने शासन पर नियंत्रण बना रखा था, उसके द्वारा भी अपनी यादों को तुर्की भाषा में ही कलमबद्ध किया गया था। जब मुग़ल भारत में स्थापित हुए तो आरंभिक दौर में उनके पास तर्की भाषा को महत्व देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और उन्होंने तुर्की भाषा के इस महत्व को बनाए रखा परंतु मुगलों के भारत में स्थापित होने के बहत पूर्व में ही फारसी भाषा ने भारत में मुस्लिम अभिजात्य वर्ग की भाषा के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। उत्तर भारत में कई फारसी कवि एवं लेखक हुए जिनमें मसूद सलमान, जियाउद्दीन नखशबी,अमीर खुसरो एवं हसन सिजी का विशेष महत्व है। यह पंजाब के गजनवी राज्य एवं दिल्ली के सुल्तानों के राज्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। उत्तरी भारत में फारसी भाषा के विकास के साथ-साथ मुगलों से पूर्व यहां पर हिंदवी का भी विकास हो रहा था. जो फारसी संस्कृति से धीरे-धीरे जुड़ती चली गई, जिसे सूफी संतों की अभिव्यक्तियों में देखा जा सकता है।
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15वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों एवं 16वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में हमें कोई प्रमुख फारसी कवि या लेखक देखने को नहीं मिलता, जबकि पद्मावत के लेखक के रूप में मलिक मोहम्मद जायसी हिंदवी भाषा के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। फारसी भाषा अफ़गानों के अंतर्गत भी एक अपना महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाई।
भारत में अफगान बड़ी मुश्किल से फारसी बोल पाते थे, जबकि वह फारस से अपना मजबूत संबंध बनाए हुए थे। सूर एवं लोधी शासकों के काल में फारसी के स्थान पर हिंदवी अर्ध-सरकारी भाषा के रूप में अपना स्थान बनाए हुए थी।
आरंभिक मुगल शासकों के ईरान के साथ उनके संबंधों का महत्वपूर्ण स्थान था। उदाहरण के लिए हुमायूं भारत में जब अफ़गानों से पराजित हुआ, तो उसने भागकर ईरान में शरण ली और उसकी हिंदुस्तान वापसी के समय बड़ी संख्या में ईरानी भी यहां पर आए थे। इन्हीं ईरानीयो ने उसे हिंदुस्तान पर पुनः विजय प्राप्त करने में सहायता प्रदान की थी।अकबर ने भी अपने प्रशासन के महत्वकांक्षी चगताई तुर्कों को नियंत्रित करने के लिए बड़ी संख्या में ईरानीयों को अपने शासन का हिस्सा बनाने के लिए आमंत्रित किया था। इससे पूर्व ईरानी बाबर की उजबेकों पर विजय स्थापित करने में सहायता प्रदान कर चुके थे। इन्हीं सब के माध्यम से ईरान की फारसी भाषा भी मुगल हिंदुस्तान से जुड़ती चली गई,विशेषकर बादशाह अकबर ने 1585-86 के दौर में ईरान के साथ अपने सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा दिया। इसके लिए उसने विद्वानों के कई मिशन ईरान भेजें, जिससे कि मुगलों के साथ ईरान के संबंध मजबूत हो सके और अधिक से अधिक ईरानी भारत में आकर बसें। इस संबंध में बादशाह अकबर ने अपने दरबारी विद्वान फैजी को एक दस्तावेज तैयार करने को कहा, जो कि ईरान से आने वाले विद्वानों एवं व्यापारियों की यात्राओं पर आधारित था।
इसी दस्तावेज के आधार पर अकबर ने ईरान से अपने सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने पर बल दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में ईरान के फारसी विद्वान, कवि एवं लेखक हिंदुस्तान आए। साथ ही ईरान से आने वाले यह प्रवासी भी अपने बेहतर भविष्य की तलाश में मुगलों की सेवा में आना अधिक फायदेमंद समझते थे।
मुगल बादशाह अकबर का यह विश्वास था कि ईरानी समुदाय न सिर्फ आध्यात्मिक एवं भौतिक समृद्धि के आधार पर मुगल भारत से जुडें बल्कि वह हिंदुस्तान को अपना दूसरा घर समझें। यही कारण रहा कि ईरानियन बौद्धिक वर्ग संपूर्ण मुगल क्षेत्रों में अपना विस्तार कर सके। ईरान के साथ बादशाह अकबर के इसी सांस्कृतिक संबंधों के विस्तार का परिणाम था कि फारसी भाषा ने मुगल दरबार में प्रथम भाषा का स्तर प्राप्त कर पाया था।
अकबर जब अपने शासन की मजबूती में लगा हुआ था तो उसके दरबार का पहला व्यवस्थित फारसी कार्य बाबरनामा का तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद था। साथ ही उसने इस बात पर भी बल दिया कि आगे से उसकी सभी दरबारी गतिविधियों एवं उपलब्धियों का विवरण फारसी भाषा में ही रखा जाए। हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम के द्वारा लिखा गया हुमायूँनामा भी फारसी भाषा में लिखा गया। जबकि गुलबदन एवं उसके पति खिज्र ख्वाजा खान की मातृभाषा तुर्की थी।
इसके अलावातजकिरा हुमायूं-व-अकबर एवंतजकिरात-उल-वाक्यात जैसे ग्रंथ जिनकी सहायता अबुल फजल ने अपनेअकबरनामा के लिए भी ली थी, उनकी रचना भी फारसी में की गई थी। यद्यपि अकबर ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की थी परंतु उसके समक्ष उसके दरबार में महत्वपूर्ण फारसी पुस्तकों का निरंतर पठन-पाठन किया जाता था। उसके पुस्तकालय में अरबी, फारसी, हिंदी, ग्रीक एवं कश्मीरी भाषा की सैकड़ों साहित्यिक पुस्तकें थी परंतु उसके समक्ष जिन पुस्तकों का पठन किया जाता था, वह अधिकतर फारसी भाषा में ही होती थी। कुछ स्रोतों से ऐसी भी जानकारी मिलती है कि अकबर फारसी एवं हिंदी भाषा में काव्य छंदों की रचना भी करता था परंतु इनमें से फारसी काव्य पंक्तियों का ही दरबारी रिकॉर्ड रखा जाता था। दरबार में फारसी भाषा की बढ़ती महत्ता के कारण ही फारसी कवियों एवं विद्वानों के द्वारा शाही संरक्षण का उपभोग किया जा रहा था।
उत्तर भारत के सभी मुस्लिम शासकों में संभवतः अकबर प्रथम शासक था, जिसने अपने दरबार में संस्थागतमलिक -उस-शोअरा जैसे पुरस्कार का चलन शुरू किया था। यह पुरस्कार केवल फारसी कवियों को ही दिया जाता था
और यह व्यवस्था (1626-1656) शाहजहां के काल तक जारी रही। गजाली, हुसैन शानाई,तालिब अमूली, कलीम कसानी एवं कदसी मसहदी जैसे कवि एवं विद्वान मलिक-उस-शोअरा का पुरस्कार पाने वाले सभी ईरानी थे। इनमें फैजी एकमात्र अपवाद था। आगे दीवान या मसनबी की रचना करने वाले हजारों कवियों में केवल कुछ एक को छोड़कर शेष सभी ईरानी थे और फारसी भाषा के कवि थे। इसके अलावा सैकड़ों फारसी कवियों एवं लेखकों को बादशाह का संरक्षण मिल रहा था। निजामुद्दीन बक्शी के अनुसार इनकी संख्या 81 थी,जबकि बदायूनी ने इनकी संख्या 168 बताई है। यहां तक कि बादशाह के अमीर भी फ़ारसी विद्वानों को ही संरक्षण देने में वरीयता देते थे, जैसा कि केवल अब्दुल रहीम खानखाना से ही लगभग 100 कवि एवं 31 फारसी के विद्वान जुड़े हुए थे।
अतः अब तक फारसी भाषा का उद्भव शासकों की भाषा के रूप में हो चुका था। यह मुगल घराने एवं उच्च अभिजात्य अमीरों की भाषा बन गई थी। अकबर का पुत्र एवं उसका उत्तराधिकारी जहांगीर (1605-26) तुर्की भाषा का अच्छा जानकार नहीं था परंतु फारसी भाषा पर उसकी पकड़ थी और फारसी की उसकी अपनी ही एक शैली थी। उसने अपनी यादों को फारसी भाषा में ही कलमबद्ध किया। वह फारसी भाषा का एक अच्छा विद्वान एवं कवि था। उसने फारसी में कई कविताओं एवं गजलों की रचना की थी। जहांगीर ने जायसी की पद्मावत का फारसी में अनुवाद भी करवाया। बाद के कालों में मुगल बादशाह औरंगजेब (1656-1707) ने भी अपने को फारसी की एक महत्वपूर्ण गद्य लेखक के तौर पर स्थापित किया था परंतु उसके द्वारा जब औपचारिक रूप सेमलिक-उसशोअरा पर रोक लगा दी गई, तो इससे फारसी की प्रभुता पर थोड़ी ऑच अवश्य आई परंतु फिर भी संपूर्ण 17वीं शताब्दी उत्तर भारत में ऊंचे दर्जे की फारसी कवियों एवं लेखकों की गवाह अवश्य बनी।
यदि फारसी को मुगल साम्राज्य की औपचारिक भाषा बनने के संदर्भ में और अधिक परीक्षण करते हैं तो यह पता चलता है कि फारसी भाषा की सीमाओं का विस्तार साम्राज्य के दायरे से भी अधिक हो गया था। यह बादशाह,राजकुमारों एवं उच्च अमीर वर्ग के दायरे से भी आगे बढ़ गई। अकबर भारतीय इस्लामिक बादशाहों में प्रथम था, जिसने उत्तर भारत में औपचारिक तौर पर प्रशासन के सभी चरणों में फारसी भाषा को अनिवार्य कर दिया था। अकबर के राजस्व प्रशासन में फारसी भाषा के महत्व को इस आधार पर समझा जा सकता है कि इस विभाग में नौकरी प्राप्त करने के लिए ईरानियों के साथ-साथ हिंदूखत्री एवं कायस्थ भी बड़ी संख्या में उत्तर भारत के मदरसों में फारसी भाषा का अध्ययन कर रहे थे। यह खत्री एवं कायस्थ फारसी के अच्छे जानकार माने जाने लगे थे। मुगल प्रशासन में मुहरिश एवं मुंशी के पदों पर नौकरी करने वाले लिपिक वर्ग को फारसी का ज्ञान होना आवश्यक था। इसमें न सिर्फ ईरानी वर्ग लगा था बल्कि बड़ी संख्या में हिंदू खत्री एवं कायस्थ भी फारसी सीख कर नौकरी कर रहे थे।
प्रशासन में फारसी भाषा को बढ़ावा देने के लिए अकबर ने न सिर्फ इसे प्रशासनिक कार्यों में अनिवार्य बनाया, साथ ही इसकी शिक्षा की भी उचित व्यवस्था कर इसे बढ़ावा दिया। अकबर ने यह व्यवस्था बनाई कि विद्यार्थियों को आरंभिक स्तर पर ही फारसी अक्षरों का ज्ञान हो जाए, इसके लिए मदरसों में फारसी भाषा के शिक्षक तैनात किए गए। यह उम्मीद की गई कि विद्यार्थी अपना अधिकांश समय सिर्फ अक्षर ज्ञान में ही न लगाएं बल्कि उन्हें फारसी की कविताओं एवं कुछ वाक्यों का आरंभिक स्तर पर ही ज्ञान दिए जाने की व्यवस्था की जाए। कम उम्र में ही उन्हें फारसी की नैतिक शिक्षा (अखलाक),गणित हिसाब), कृषि (फलासत), माप-तौल (मासदत), घरेलू अर्थशास्त्र (तदबीर-ए-मंजिल) एवं सरकारी प्रशासन के कायदे कानून (सियासत-ए-मुदन)आदि जैसे कई अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाने लगती थी। साथ ही उच्च स्तर पर फारसी के काव्य एवं लेखन की साहित्यिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। फारसी के दरबारी विद्वान एवं कवि फारसी की उच्च स्तर के ज्ञाता होते थे। इन सब शासकीय गतिविधियों एवं प्रेरणाओं का परिणाम था कि फारसी मुगल दरबार की प्रथम प्रशासनिक भाषा बन गई और भारतीय इस्लामिक शासन में इसने अपना महत्वपूर्ण एवं उच्चतम स्थान प्राप्त कर लिया था।

निष्कर्ष

निष्कर्षः हम यह देख सकते हैं कि कुछ विशिष्ट कारणों के माध्यम से फारसी मुगल साम्राज्य की मुख्य भाषा बन गई।
जैसे-
अकबर अपने पूर्वजों के समय से ही ईरानी संस्कृति से अधिक जुड़ाव महसूस करता था। इसके साथ ही वह अपने प्रशासन में चगताई अमीरों के प्रभत्व को कम करना चाहता था।
मुगल ईरानी बौद्धिक वर्ग:विद्वानों एवं कवियों को भारत में आमंत्रित कर रहे थे। उन्हें यहां पर बसने हेत प्रोत्साहित कर रहे थे क्योंकि मुगल अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार के क्रम में ईरान से सांस्कृतिक जुड़ाव बढ़ाना चाहते थे।
मुगल फारसी भाषा को एक राज्य निर्माण के यंत्र की तरह भी प्रयोग कर रहे थे। इसके माध्यम से वह मुगल पहचान एवं सांस्कृतिक सर्वोच्चता को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे थे। फारसी भाषा के महत्व के बढ़ने के साथ ही मुगल प्रशासन को एक उच्च स्तर एवं इस्लामिक पहचान प्रदान करना चाहते थे क्योंकि फारसी भाषा भी अरबी की तरह एक इस्लामिक भाषा थी और फिर फारसी मुगलों के पूर्व से ही उत्तर भारत में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने में सफल रही थी। ऐसे में मुगल इस अभिजात्य वर्गीय भाषा के माध्यम से एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं भाषाई पहचान प्राप्त कर सकते थे।
साथ ही प्रशासन को एक प्रमुख भाषा प्रदान करना चाह रहे थे जिसमें न सिर्फ इस्लामिक विशेषताएं शामिल हो बल्कि भारत में भी इसकी उच्च एवं विशिष्ट भाषाई पहचान हो,जिसमें बड़ी संख्या में हिंदुओं की भी प्रशासनिक भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

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