तोड़ती पत्थर कविता
कवि कहते है, मैने एक महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखा। कवि ने उसे इलाहाबाद की किसी सड़क पर काम करते देखा है। इलाहाबाद की किसी सड़क पर काम में लगी एक श्रमिक महिला को देखकर निराला जी ने लिखा है कि वह जहाँ बैठी काम में लगी है, वहाँ कोई छायादार पेड़ भी नहीं है, जो उसे गरमी की प्रखरता से, उसकी तेजी से बचा सके। पर उसे इस स्थिति से कोई शिकायत नहीं है, वह तो इस स्थिति को स्वीकार कर रही है। सोचिए क्यों ? क्योंकि वह जानती है कि जब कठिन श्रम करना है तो अनुकूल परिस्थितियों की कल्पना ही व्यर्थ है।कवि की दृष्टि पहले श्रमिक महिला के शारीरिक रूप-सौंदर्य की ओर जाती है। उसका शरीर साँवला है। वस्तुतः, धूप में काम करने वाले सभी श्रमिकों का रंग धूप में साँवला पड़ ही जाता है। वह युवती है और निरंतर श्रम करने के कारण उसका शरीर सुगठित है यानी देह-रचना सुडौल और सुघड़ है। उसकी झुकी आँखें बड़ी प्यारी लग रही हैं। उसका मन भी काम पर पूर्ण तन्मयता से लगा है। हाथ में भारी हथौड़ा लेकर वह बार-बार पत्थरों पर चोट कर रही है। उन्हें तोड़ रही है। इसके बाद कवि परिवेश की परस्पर विरोधी स्थिति का चित्रण कर रहा है। वह कहता है जहाँ एक ओर वह मज़दूरनी गरमी में छायाहीन वृक्ष के नीचे काम कर रही है - वहीं उसके एकदम सामने के परिवेश से संपन्नता और सुख-सुविधा झलक रही है। वहाँ सुंदर सजावटी वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, विशाल ऊँचे भवन हैं और उनके चारों ओर सुंदर दीवारें हैं। कविता की इन पंक्तियों में यह संकेत स्पष्ट है कि वह संभ्रांत नागरिकों की बस्ती है। वे लोग सुख-सुविधाओं के बीच अट्टालिकाओं में परकोटों से घिरे बैठे हैं और आस-पास की परिस्थितियों से बेखबर अपने आप में सिमटे हुए हैं, जबकि उन भवनों का निर्माण करने वालों को मौसम की मार से बचने की सुविधा तक नहीं है।