नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था क्या है​? | nai antarrashtriya arthvyavastha kya hai

प्रस्तावना

1950 ई. के दशक में साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के पतन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई फलत: एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देश एक-एक कर स्वाधीन होते गए। किन्तु आर्थिक दृष्टि से ये देश सही मायने में स्वतन्त्र नहीं थे। विश्व अर्थव्यवस्था का एक ऐसा ढांचा स्थापित हो चुका था जो न्याय एवं लोकतन्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं था। नवोदित देश नव-उपनिवेशवाद के शिकंजे में फंसते जा रहे थे।
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की कोई प्रणाली पाई ही नहीं जाती थी। परिणामस्वरूप प्रत्येक संप्रभु देश अपने स्वयं के राष्ट्रीय दृष्टिकोण तथा योग्यता के मुताबिक अपने आर्थिक सम्बन्धों तथा हितों का संचालन किया करता था। ऐसी स्थिति में सामान्यत: एक देश दूसरे देश से टकराहट पैदा करने वाली नीतियों का प्रतिपादन करते थे जिस वजह से आर्थिक जगत में अराजकता यानी 'मत्स्य न्याय' की अवस्था थी। पर स्थिति तब और भी बद से बदतर हो जाती जबकि संकटकालीन स्थितियां पैदा हो जाती थी। उदाहरण के लिए 1930 में विश्व व्यापी मंदी के दौर में इस अव्यवस्था की कमियां और अधिक उजागर हो गई। ऐसी स्थिति में विश्व के प्रमुख देशों में यह भावना घर करने लगी कि किसी न किसी तरह की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के विचार को और अधिक बल मिलना चाहिए। जुलाई 1944 को ब्रेटनवुड्स में पांच महाशक्तियों- अमरीका, पूर्व सोवियत संघ, इंगलैण्ड, फ्रांस और चीन ने मिलकर सम्मेलन बुलाया था।
nai antarrashtriya arthvyavastha kya hai
वास्तव में ब्रेटनवुड्स में प्रस्तावित 'अर्थव्यवस्था' अमरीका की एक योजना थी जिसे अन्य प्रमुख औद्योगिक देशों का समर्थन प्राप्त था और जिसका उद्देश्य उसकी अपनी हित साधना था। अत: धनी देशों द्वारा स्वयं धनी देशों के लिए तैयार की गयी यह अर्थव्यवस्था अमीर और गरीब देशों के बीच असमानता एवं निर्भरता के सम्बन्धों को संस्थागत रूप में जारी रखने के उद्देश्य से (विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं के माध्यम से) बनायी गयी थी। परिणामस्वरूप ब्रेटनवुड्स बैठक में जिस अन्दाज में इन संस्थाओं की नींव डाली गई- उसकी रूझान औपनिवेशिक या पश्चिमी जगत की महाशक्तियों की तरफ था। परन्तु यह अर्थव्यवस्था 1960-70 के विश्व की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं थी।
तृतीय विश्व के विकासशील देश इसकी कमियों को उजागर करते हुए वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के निर्माण की बात कहने लगे थे और इस बात पर जोर देने लगे कि आर्थिक सम्बन्धों का निर्धारण न्याय और लोकतान्त्रिक आदर्शों पर किया जाना चाहिए। अत: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में 1970 के दशक में एक नयी अवधारणा का प्रचलन हुआ जिसे 'नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था' (The New International Economic Order) के नाम से जाना जाता है।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अर्थ

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग का उदय गैर-बराबरी के एहसास और उसे सुधारने की इच्छा के कारण हुआ। इसने विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ती हुई खाई को खत्म करने का लक्ष्य रखा और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को निष्पक्षता के सिद्धान्त, प्रभुसत्ता की बराबरी, अन्तर निर्भरता, हितों की समानता और राष्ट्रों के बीच सहयोग पर आधारित करने का प्रयास किया। यह मुख्यत: आर्थिक मदद से संबंधित नहीं है। यह मूलतः अर्थव्यवस्था उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद तथा नव-उपनिवेशवाद तथा नवसाम्राज्यवाद को उनके सभी रूपों को पूर्णतः समाप्त करना चाहती है। इसका उद्देश्य है एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना जो न्याय तथा समानता पर आधारित हो तथा जिसमें तीसरे विश्व के देशअपने प्राकृतिक संसाधनों का अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकें। यह नई अर्थव्यवस्था लोकतन्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित होगी अर्थात् इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों पर आधारित होंगे। यह अर्थव्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शक्ति का विकेन्द्रीकरण चाहती है तथा यह चाहती है कि पश्चिम अथवा उत्तर के विकसित देश अहसान के रूप में नहीं बल्कि अपना उत्तरदायित्व मानकर विकासशील देशों की सहायता करें तथा उनके विकास में योगदान दें।
यह व्यवस्था निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है :
  • राज्यों की प्रभुसत्तात्मक बराबरी और निष्पक्षता पर आधारित विस्तृत सहयोग,
  • अपनी प्राकृतिक संपदा और अपनी तमाम आर्थिक गतिविधियों पर प्रत्येक राज्य की पूर्ण और स्थायी प्रभुसत्ता।
  • बहुराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों पर नियंत्रण और उनका निरीक्षण,
  • विकासशील देशों द्वारा आयातित और निर्यातित खनिज पदार्थों, मौलिक मालों, उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों में न्यायपूर्ण और उचित संबंध,
  • अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के तमाम क्षेत्रों में जहां कहीं भी सम्भव हो, विकासशील देशों के लिए अधिमान्य और गैर-पारस्परिक प्रतिपादन,
  • विकासशील देशों के लिए वित्तीय संपदाओं के स्थानांतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियों को सुरक्षित करना,
  • विकासशील देशों के बीच वैयक्तिक और सामूहिक गतिविधियों द्वारा पारस्परिक अर्थव्यवस्था, व्यापार, वित्तीय और तकनीकी सहयोग को सुदृढ़ करना, मुख्यतः अधिमान्य आधार पर।
उपर्युक्त सभी मांगें विश्व व्यापी है और विकासशील तृतीय विश्व के राष्ट्रों के अनुकूल हैं।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1960 ई. के दशक के अन्त तक अधिकांश एशियाई और अफ्रीकी देशों ने राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली थी। फिर भी यह अनुभव किया गया कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के बावजूद नव-स्वाधीन देशों में से अधिकतर देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे और औद्योगिक देशों पर निर्भर थे। इस प्रकार जहां एक ओर उपनिवेशवाद और पुरानी तरह के साम्राज्यवाद के अवशेषों पर एक नवीन राजनीतिक व्यवस्था का अभ्युदय हुआ था वहीं पुरानी अर्थव्यवस्था भी कायम थी जिसे धनी औद्योगिक देशों के प्रभाव वाले ब्रेटनवुड्स सिद्धान्त के अन्तर्गत चलाया जा रहा था। अतः तृतीय विश्व के नवस्वाधीन राष्ट्रों और उनके संगठित मंच गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने धनी और निर्धन देशों के आर्थिक मामलों और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मामले को उठाया।
1964 में व्यापार और विकास की संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन अंकटाड (UNCTAD) की एक स्थायी संगठन के रूप में स्थापना हुई जिसने इन मागों की अभिव्यक्ति के लिए एक बड़ा मंच प्रदान किया। अंकटाड (UNCTAD) की स्थापना का बहुतेरे विकसित देशों ने विरोध किया। ब्रेटनवुड्स सम्मेलन से अस्तित्व में आई अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा और व्यापारिक व्यवस्था से कम विकसित देश असंतुष्ट थे। विरोध दो स्तरों पर था। प्रथम स्तर पर, उसने व्यापार और विकास के बीच प्रचलित संबंधों को चनौती दी और दूसरी ओर उत्तर और दक्षिण के बीच व्यापार सम्बन्धों में सुधार के लिए नीतिगत प्रस्ताव रखे। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा और व्यापारिक व्यवस्था की यह चुनौती, ब्रेटनवुड्स व्यवस्था के निर्माणकर्ताओं के उदारवादी हस्ताक्षेपवादी व्यवस्था पर, मूलभूत हमला था। इसके मार्गदर्शक सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में गैर-भेदभाव और मुक्त व्यापार थे। इस सम्मेलन का परिणाम था अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा का IMF और GATT ने विकासशील देशों को हाशिए पर ला दिया था। इसलिए इन कम विकसित देशों ने गैर-भेदभाव और पारस्परिकता के विचार को अस्वीकार कर दिया और 1973 के अल्जीयर्स चौथे गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों ने धनी देशों की शोषक प्रवृत्ति को उजागर करते हुए प्रचलित अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था द्वारा स्थापित असमानताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया।
अल्जीयर्स आह्वान अनसुना नहीं रहा। विकासशील देशों के बढ़ते दबाव के कारण संयुक्त राष्ट्र महासभा का छठा विशेष अधिवेशन बुलाया गया जिसने 1 मई, 1974 को नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की घोषणा' और कार्यवाही योजना' के ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए। इन दोनों दस्तावेजों की मुख्य मांगें व्यापार, आर्थिक सहायता, जिंसों के मूल्य, टैक्नालौजी के हस्तान्तरण और बहु-उद्देशीय निगमों की गतिविधियों के नियमन के क्षेत्रों से सम्बन्धित थीं।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रयास

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना हेतु गुटनिरपेक्ष आन्दोलन, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उसके द्वारा स्थापित अंकटाड और यूनिडो तथा उत्तर दक्षिण संवाद एवं दक्षिण-दक्षिण संवाद जैसे संगठन निरन्तर प्रयत्नशील रहे है।
ये प्रयास मुख्यत: निम्न प्रकार के रहे हैं-

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रयास
नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की माँग सर्वप्रथम अफ्रेशियाई नेताओं ने 1964 के काहिरा शिखर सम्मेलन में उठायी थी। इस समोलन में मुख्य बल सहायता और सुधरे व्यापार सम्बन्धों' पर दिया गया। सम्मेलन में नई और न्यायोचित अर्थव्यवस्था के द्रुत विकास हेतु देशों से योगदान देने के लिए कहा गया था ताकि विकासशील देश भय, अभाव और निराशा से रहित होकर अपना पूर्ण विकास कर सकें। 1970 ई. में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के लुसाका शिखर सम्मेलन में उसे पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त हुई। 1973 में अल्जीयर्स गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में उसे संरचनात्मक स्वरूप प्राप्त हुआ। इस तरह से गुट निरपेक्ष आन्दोलन की भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास
1 मई, 1974 ई. को नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को पहली बार स्पष्ट रूप से स्वीकार कर व्यावहारिक रूप में परिणित किया गया जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के विरोध के उपरान्त भी संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने बहुमत से नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए एक घोषणा तथा कार्यक्रम को स्वीकार किया। इस घोषणा में संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से यह संकल्प व्यक्त किया गया था कि "वह समस्त राज्यों के बीच समता, प्रभुतासम्पन्न समानता, परस्पर-निर्भरता, आमहित तथा सहयोग के आधार पर एक नयी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए त्वरतापूर्वक कार्य करेगा, भले ही उनकी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो, विषमताओं तथा विद्यमान अन्यायों का निवारण करेगी, विकसित और विकासशील देशों के बीच की आर्थिक खाई को पाटने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगी तथा वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए निरंतर गतिशील और वृद्धिशील आर्थिक तथा सामाजिक विकास और शान्ति तथा न्याय को सुनिश्चित करेगी।"

घोषणा पत्र में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के निम्नलिखित उद्देश्य बताए गए थे-
  • विश्व के राष्ट्रों के मध्य असमानताओं को समाप्त करना,
  • वर्तमान व्यवस्था में उपस्थित अन्यायों को समाप्त करना,
  • निरन्तर तथा तीव्र आर्थिक विकास का लक्ष्य प्राप्त करना,
  • वर्तमान तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए शान्ति तथा न्याय की व्यवस्था करना,
  • सामाजिक न्याय की पुनर्स्थापना का प्रयास करना।
उपर्युक्त घोषणा ने विकासशील राष्ट्रों की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को अभिव्यक्ति प्रदान की।

कानकुन शिखर सम्मेलन
अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की उपर्युक्त समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए उत्तर और दक्षिण अर्थात् अमीर और गरीब देशों का एक लघु शिखर सम्मेलन मैक्सिको के नगर कानकुन में अक्टूबर, 1981 में आयोजित किया गया जिसमें 8 विकसित तथा 14 विकासशील देशों ने भाग लिया। सम्मेलन में मुख्य चर्चा इस प्रश्न पर हुई थी कि विश्व वार्ताएं किस तरह आयोजित की जायें। विकासशील देशों का मानना था कि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर संयुक्त राष्ट्र का अन्तिम नियन्त्रण होना चाहिये जबकि अमेरिका का मानना था कि नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धान्तों और उसके ढाँचे के बारे में अन्तिम निर्णय संयुक्त राष्ट्र संघ के क्षेत्राधिकार के बाहर आयोजित उत्तर-दक्षिण संवाद के माध्यम से किया जाये इस शिखर सम्मेलन का केवल इतना ही लाभ हुआ कि दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विचार सुने और यद्यपि वे अपने-अपने पक्षों पर डटे रहे तथापि उनमें से प्रत्येक को एकदूसरे के विचारों का और आग्रहों का बोध हुआ।

दक्षिण-दक्षिण संवाद
उत्तर-दक्षिण संवाद की असफलता के परिणामस्वरूप दक्षिण-दक्षिण संवाद का जन्म हुआ। दक्षिण-दक्षिण संवाद का वास्तविक सूत्रपात सन् 1968 में नई दिल्ली में आयोजित द्वितीय अंकटाड के सम्मेलन में विकासशील राष्ट्रों में आपसी सहयोग की आवश्यकता पर बल देने के साथ हुआ था। इसके बाद गुट निरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलनों में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की मांग की गयी। हाल ही में दक्षिण-दक्षिण संवाद' के लिए जी-15 ने त्वरित प्रयत्न किए हैं। जी-15 या तृतीय विश्व के 15 विकासशील देशों के ग्रुप की स्थापना 1989 में बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन के समय की गई थी। जी15 देशों का पहला शिखर सम्मेलन जून 1990 में मलेशिया में कुआलालम्पुर में हुआ था। सम्मेलन में दो प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया गया था। यह थें- विकासशील देशों का ऋण और विकसित एवं विकासशील देशों के बीच वास्तविक उदारवाद। इसमें विकासशील देशों के लिए साउथ बैंक की स्थापना का भी सुझाव दिया गया था कुआलालम्पुर में जिन मुद्दों पर ध्यान दिया गया था उनके आलावा काराकास में आयोजित दूसरे शिखर सम्मेलन (नवम्बर 1991) की कार्य-सूची में विकास की नई दिशाएं, विकासशील देशों के बीच सहयोग और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के युग में विकसित और विकासशील देशों के बीच संवाद जैसे मुद्दों को शामिल किया गया। सेनेगल की राजधानी डाकार में आयोजित जी-15 देशों के तीसरे शिखर सम्मेलन (दिसम्बर 1992) में विकसित देशों से मांग की गयी थी कि वे प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों (विशेषकर आर्थिक मुद्दों) का समाधान विकासशील देशों के साथ बातचीत के माध्यम से निकालें। जी-15 के देशों ने तीसरे शिखर सम्मेलन में विश्व व्यापार के मुद्दे पर उरूग्वे दौर की बातचीत की सफल और सन्तुलित समाप्ति की अपील की। समूह ने यह चेतावनी भी दी कि यदि गैट योजना के माध्यम से कुछ प्रतिकूल कदम उठाए गए तो उन विकासशील देशों के आर्थिक विकास को बड़ा धक्का लगेगा, जहाँ पुनर्सरचना और उदारीकरण का दौर चल रहा है। जी-15 के शिखर सम्मेलन (हरारे 3-5 नवम्बर 1996) में व्यापारिक मुहें ही हावी रहे।

दक्षिण-दक्षिण संवाद का मुख्य उद्देश्य था दक्षिण के विकासशील देशों के मध्य सहयोग में वृद्धि करना जिससे ये देश विकास का लक्ष्य प्राप्त कर सकें। दक्षिण के देशों के मध्य यद्यपि अनेक कारणों से वांछित मात्रा में सहयोग सम्भव नहीं हो सका किन्तु विकसित देशों से सहयोग प्राप्त नहीं होने के कारण इन देशों को यह विश्वास हो गया कि आपस में सहयोग तथा घनिष्ठ आर्थिक सम्बन्ध विकास के लिए अनिवार्य है। पश्चिमी देशों का कहना है कि विकसित देशे से व्यापार और सहायता की नीतियाँ उदार बनाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा एवं वित्तीय संस्थाओं के पुनर्गठन की मांग करने से पहले अपनी ही आर्थिक राजनीतिक प्रणालियों में सुधार एवं पुनर्गठन का प्रयत्न करना चाहिए।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का भविष्य

यद्यपि वर्तमान तक भी बहुत सारे कारणों से नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग मोटे तौर पर पूरी नहीं हुई है, परन्तु भविष्य में इसमें कुछ बदलाव होना अवश्यमभावी है। वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था बहुतेरे विकासशील देशों की विश्वस्तरीय उत्पादकता और उनके नव अर्जित ताकत से मेल नहीं खाती। विकासशील देशों की परिस्थितियों को सुधारने के लिए, जो कि विश्व जनसंख्या का 70 प्रतिशत है और विश्व आय के सिर्फ 30 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी है, विश्व आर्थिक सम्बन्धों में बड़े संरचनात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता है। बहुतेरे क्षेत्रों में दक्षिण-दक्षिण सहयोग को सुधारने की नितान्त आवश्यकता है। उत्तर-दक्षिण संवाद को जारी रखने की जरूरत है क्योंकि सिर्फ यही कदम उन प्रतिरोधों को हटा सकते है जो विकास के रास्ते में अवरोध है। इसलिए इस तथ्य के बावजूद कि कुछ विकसित देशों की सरकारें नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए इच्छुक नहीं है, अंतत: उन्हें इतिहास के अवश्यमभावी तर्क के सामने झुकना पड़ेगा जो अर्थव्यवस्था में परिवर्तनों की मांग करता है। इसके लिए, मौजूदा ढांचे को सुधारने की सख्त जरूरत है जो सिर्फ सौदेबाजी से आगे बढ़ कर अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे की ओर लक्षित है। विश्व शान्ति और विकास वर्तमान समय की जरूरतें हैं। सिर्फ नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ही विश्व को आर्थिक सुधार की ओर ले जा सकती है।

सारांश

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के लिए गरीब और विकासशील देशों का यह संघर्ष वस्तुत: आर्थिक स्वाधीनता का संघर्ष है। इस संघर्ष में धीरे-धीरे तृतीय विश्व के राष्ट्र संगठित होते जा रहे हैं और उपनिवेशवाद विरोधी दृष्टिकोण अपना रहे हैं। इस संघर्ष में विकासशील देशों को यह आशा है कि औद्योगिक दृष्टि से विकसित देश कई प्रकार की रियायतें देने के लिए विवश होंगे और विश्व के धन का वितरण इस प्रकार से होने लगेगा कि जिसका लाभ उनके पक्ष में होने लगेगा। जी-8 समूह के जो विकसित देश तृतीय विश्व में नव-उपनिवेशवादी वर्चस्व कायम करने में लगे हैं उनका मुकाबला जी-77 के विकासशील देश मिलकर ही कर सकते हैं। संक्षेप में, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की खोज की अवधारणा अभी भी शैशवावस्था में है, इसके आयामों में निश्चित स्वरूप धारण नहीं किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है।

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